Principal's Message

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" शोधेन वर्द्धते विद्या, तत्वं तेनैव लभ्यते।
दीपशिखा यथाभाति शोधालोको महीयते ॥"

परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। राष्ट्र एवं समाज की आवश्यकताओं, आकांक्षाओं एवं परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ ही प्रत्येक युग में शिक्षा व्यवस्था भी परिवर्तित होती रही है। वैदिक युग से लेकर वर्तमान समय तक भारत की शिक्षा व्यवस्था में निरन्तर परिवर्तन किया जाता रहा है परन्तु परिवर्तन की प्रक्रिया के इस क्रम में भारतीय शिक्षा व्यवस्था कभी भी अपने मूल उद्देश्य से नहीं भटकी है। शिक्षा व्यवस्था का मूल आधार, स्वरूप एवं शिक्षा नीति कैसी भी रही है परन्तु प्रत्येक युग में शिक्षा के मूल में 'मनुर्भव' अर्थात् मनुष्य बनो, का उद्देश्य ही निहित रहा है। हमारे देश की प्राचीन गुरुकुल शिक्षा प्रणाली. नालन्दा, विक्रमशिला और वल्लभी जैसी गौरवशाली शिक्षण संस्थाएँ लम्बे समय तक विश्व के कौतूहल का केन्द्र रही है। श्री विष्णु पुराण के प्रथम स्कन्ध में कहा गया है कि- " तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।" अर्थात् कर्म वही है जो बन्धन मे न डा (कर्मफल में आसक्ति न करें) और ज्ञान वह है जो हमें बन्धनों से मुक्त कर दे।

राष्ट्रहित में भूमण्डलीकरण जनित चुनौतियों एवं विश्व अर्थव्यवस्था में अपनी साख बनाए रखने की दृष्टि से भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में परिवर्तन किया जाना अत्यन्त आवश्यक था। परिणामस्वरूप गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, नवाचार अनुसंधान एवं कौशल विकास सम्बन्धी विविध आयामों को समाविष्ट करते हुए भारत सरकार द्वारा नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की घोषणा की गई। इसमें सन्देह नहीं है कि वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में कौशल विकास विश्व के लगभग सभी देशों के आर्थिक विकास की एक अनिवार्य शर्त बन गया है।

आर्थिक विकास समय की मांग है परन्तु हमे यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के संपोषण के लिए कच्चा माल यानि मानव संसाधन (श्रम बल) उपलब्ध कराना मात्र ही भारतीय शिक्षा व्यवस्था का लक्ष्य नहीं है। माना कि वर्तमान सदी आर्थिक विकास की रावी है परन्तु आर्थिक अथवा भौतिक विकास ही शिक्षा का उद्देश्य कदापि नहीं हो सकता। शिक्षा मनुष्य को मनुष्य बनाने वाली होनी चाहिए।

वर्तमान में भारत वर्ष ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के समक्ष सबसे भयंकर चुनौती यही है कि किस प्रकार मनुष्य को मनुष्य बनाया जाये। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में ''आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता हो। परन्तु वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन के लिए तैयार नहीं करती, जो चरित्र निर्माण नहीं करती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो सिंह जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती वह शिक्षा हो ही नहीं सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ ? वह भी कोई शिक्षा है ? हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र का निर्माण हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलम्बी बने। अतः मेरे विचार से शिक्षा चरित्र निर्माण करने वाली होनी चाहिए। यदि प्रत्येक नागरिक चरित्रवान, विवेकवान और गुणवान है, तो समाज व राष्ट्र दोनों ही उन्नत होगें। तो आइये हम सभी मिलकर आजादी के अमृत महोत्सव में एक नवीन संकल्प के पुनीत उद्घोष के साथ वर्तमान शैक्षणिक सत्र 2023-24 का आगाज़ करें-

निर्माणों के पावन युग में, हम चरित्र निर्माण न भूलें।
स्वार्थ साधना की आँधी में, वसुधा का कल्याण न भूलें ।।
माना अगम, अगाध सिंधु है, संघर्षो का पार नहीं है।
किन्तु डूबना मँझधारों में, साहस को स्वीकार नहीं है।।
जटिल समस्या सुलझाने को हम नूतन अनुसंधान न भूलें ।।

नूतन सत्र की मङ्गलकामनाओं के साथ....
प्राचार्या
Prof. Vina Gopal Mishra